आयुर्वेद

वेद भगवान का दिव्य ज्ञान है, जिसे ऋषि-मुनियों ने लिपिबद्ध किया। वेद सबसे पुराना और सबसे पवित्र लिखित ज्ञान है। वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद। इन चारों वेदों के पश्चात् आयुर्वेद को पंचम वेद की संज्ञा दी गयी है। आयुर्वेद शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है। आयु: + वेद। आयु का अर्थ है – जन्म-मृत्यु पर्यन्त जीवन के सभी पहलू और वेद का अर्थ है – ज्ञान।
आयुर्वेद आयुष विज्ञान है जो कि हमें जीवन जीने की कला सिखाता है। यह एक ऎसा चिकित्सा शास्त्र है जो कि स्वास्थ्य एवं रोग अथवा जीवों के संतुलन एवं असंतुलन की स्थितियों को प्रकट करता है। हम कैसे जीवन को प्राकृतिक ढंग से संतुलित करें? यही आयुर्वेद का सार है। यह संतुलन आहार-विहार, विचार व निद्रा पर आघारित है।
जिस शास्त्र में हितकर आयु तथा अहितकर आयु, सुखी आयु एवं दु:खी आयु का वर्णन हो तथा आयु के लिए हित एवं अहित, आहार-विहार एवं औषघ का वर्णन हो और आयु का मान बतलाया गया हो तथा आयु का वर्णन हो वह आयुर्वेद कहलाता है।
शरीर एवं जीव का योग जीवन कहलाता है, उससे युक्त काल का नाम आयु है। आयुर्वेद द्वारा व्यक्ति की आयु के विषय में हित-अहित द्रव्य तथा गुण एवं कर्म को जानकर और उसका सेवन कर तथा परित्याग करके, आरोग्ययुक्त स्वास्थ्य लाभपूर्वक आयु को प्राप्त करता है और दूसरों की आयु का भी ज्ञान प्राप्त करता है।
आयुर्वेद के द्वारा रोगियों को रोग से मुक्ति मिलती है और स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा होती है अर्थात् आयुर्वेद शास्त्र का प्रयोजन है – स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना और रोगी व्यक्ति के रोगों को दूर करना।
आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र में प्रात:काल ब्रम्ह मुहूर्त में उठने से लेकर रात्रि में शयन पर्यन्त किस प्रकार समय व्यतीत करना चाहिए, इसके लिए जीवनचर्या और दिनचर्या प्रस्तुत की गयी हैं।
प्रात: जागरण : पूर्ण स्वस्थ रहने के लिए कल्याण के इच्छुक व्यक्ति को प्रात:काल ब्रम्ह मुहूर्त में उठना चाहिए। ब्रम्ह मुहूर्त की ब़डी महिमा है। इस समय उठने वाला व्यक्ति स्वास्थ्य, घन, विद्या, बल और तेज को बढ़ाता है और जो सूर्य उगने के समय सोता है, उसकी उम्र और शक्ति घटती है तथा वह नाना प्रकार की बीमारियों का शिकार होता है।
उष:पान : प्रात:काल सूर्योदय के पूर्व मल-मूत्र के त्याग करने से पहले जल पीना चाहिए। रात्रि में ताम्रपात्र में रखा हुआ जल प्रात:काल कम से कम आघा लीटर तथा संभव हो तो सवा लीटर पीना चाहिए। इसे उष:पान कहा जाता है। इससे कफ, वायु एवं पित्त-त्रिदोष का नाश होता है तथा व्यक्ति बलशाली एवं दीर्घायु हो जाता है। दस्त साफ होता है और पेट के विकार दूर होते हैं। बल, बुद्धि और ओज बढ़ता है।
मल-मूत्र-त्याग : उष:पान के बाद व्यक्ति को मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। मल-मूत्र त्याग करते समय मौन रहना चाहिए। मल-मूत्रादि के वेग को रोकना नहीं चाहिए।
दन्तघावन : शौच निवृत्ति के पश्चात् व्यक्ति को मंजन से दांत साफ करना चाहिए। दाँत साफ करने के बाद जीभी से जीभ भी साफ करनी चाहिए।
व्यायाम तथा वायु सेवन : शरीर को स्वस्थ रखने के लिए नियमित रूप से योगासन अथवा व्यायाम अवश्य करना चाहिए। सुबह और शाम को नित्य खुली, ताजी और शुद्ध हवा में अपनी शक्ति के अनुसार थकान न मालूम होने तक घूमना चाहिए।
तेल-मालिश : रोज सारे बदन में तेल की मालिश करने से ब़डा लाभ होता है। सिर का ठंडा रहना और पैरों का गरम रहना अच्छा है।
स्त्रान : व्यक्ति को प्रतिदिन स्वच्छ जल से नहाना चाहिए।
भोजन : भोजन खूब चबा-चबा कर करना चाहिए। भोजन संतुलित मात्रा में करना चाहिए अर्थात् न तो इतना कम होना चाहिए कि जिससे शरीर की शक्ति घट जाए और न इतना अघिक होना चाहिए जिसे पेट पचा ही न सके। भोजन के बाद के कृत्य : भोजन करने के बाद दाँतों को खूब अच्छी तरह साफ करना चाहिए ताकि उनमें अन्न का एक कण भी नहीं रह जाए। भोजन के बाद दौ़डना, कसरत करना, तैरना, नहाना और तुरंत ही बैठकर काम करने लगना स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है।
शयन : रात में भोजन करने के तुरंत बाद सोना नहीं चाहिए। बांयीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।

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